ऐ! हिलाल-ए-ईद
इतनी मन्नतों के बाद तू आई
और यूं निकल गई!
कभी तुझे देखने को हम बेताब थे
उम्मीद की ईदी थी
हौसलों के ख़्वाब थे
लेकिन आज हम मजबूर हैं
बहुत ही माजूर हैं
तुझे देखकर भी ख़ुशिया मना नहीं सकते
तेरी आमद की ख़ुशी में नग़मा भी गा नहीं सकते
आख़िर, कैसे मनाएं ईद की ख़ुशियां
उस दौर में
जब ये पूरी दुनिया ही बदहाल है
बेबसी की सड़कों पर मज़दूरों का जाल है
ऐसे में तेरी आमद से परेशान हूं मैं
खुद अपने आप से हैरान हूं मैं
ऐसा पहली बार होगा मेरी ज़िन्दगी में शायद
कि हम तेरी आमद की ख़ुशी में
दो रकअत नमाज़ भी नहीं पढ़ पाएंगे
हम अपने अपनों को गले से भी नहीं लगा पाएंगे
फिर भी, तुम से एक गुज़ारिश है
मेरी रूह की सिफ़ारिश है
बादल के किनारों से और नूर के परों से
इस दुनिया के नज़ारों को फिर से चमका दे
हो तेरी किरणों में इतना उजियारा
कि तेरे नूर से रौशन हो जाए ये दुनिया
ख़ुतबा तू ज़रा पढ़ दे बरबादी-ए-कोरोना का
और हर तानाशाह को अपनी तक़रीर से तड़पा दे
मुझे यक़ीन है कि एक दिन
ये कोरोना का बादल छट जाएगा
और तेरे नूर से रौशन होगी ये दुनिया
उस ईद का इंतज़ार है आंखों में
एक रोज़ आएगी
जब वो चांद चमकेगा हमारी सांसों में!